HISTORY & CULTURE


“ माँ महालक्ष्मी का स्तवन "

ऊँ नमस्तेस्तु महामाये , श्री पीठे सुर पूजते । शंख चक्र गदा हस्ते , महालक्ष्मी नमोस्तुते ।।

श्रीवेदव्यासजी के परमशिष्य जैमिनीजी ने परीक्षितजी के अशांत पुत्र जन्मेजय के चित्त को जिस अग्रभागवत की सुनाकर शांत किया था , उस अग्रभागवत ग्रंथ का - एक - एक अक्षर व श्लोक प्रमाणिक कथनों से प्रत्येक मानव को सुसंस्कृत व प्रेरणा प्रदान करके कल्याणकारी है । ( ग्रंथ के रचियता श्रीरामगोपालजी बेदिल )
​क्योंकि इस ग्रंथ में इच्क्षाकु वंश के उन परम प्रतापी महापुरुष श्री अग्रसेनजी की पुरुषार्थ गाथा वर्णन की गई है , जो कि महामाया महालक्ष्मी के वरदान से संपन्न थे , इसलिए यह पुरुषार्थ गाथा जहां सुनाई जाती है , वहां देवी महालक्ष्मी सुस्थिर होकर विराजमान हो जाती हैं ।
​ महाकवि कालिदास द्वारा रचित काव्य " रघुवंशम् " के सोलहवें सर्ग में उल्लेख है , कि श्रीराम ने अपने बड़े बेटे कुश को " कुशावती " नामक राज्य का राजा बनाया था । उन्हीं कुश की चोंतीसवीं पीढी में हुए महाराज अग्रसेन ।
​इस पृथ्वी का नाम , पृथ्वी इक्ष्वाकुवंश में जन्में महाराज पृथु के नाम पर ही पडा है । इसलिए हम सब लोग एक बार अपनी - अपनी पीठ अपने आप ही थपथपालें , कि हमें ऐसे उत्तम और निर्मल वैश्यकुल में जन्म मिला है । और गर्व से कहें , कि मैं अग्रवंशी हूँ ।
🔔 हैं श्रीरामचंद्र के वंशज हम , सो नीतिवान गुणवान हैं हम।
आराध्य हमारे सूर्यदेव , इस कारण तपकर निखरे हम।।
नागवंश ननिहाल हमारा , नागराज महीधर नानाजी।
नागेन्द्री थीं नानी अपनी , नाती नातिन उनके हैं हम ।।
हैं श्रीरामचंद्र के वंशज हम , सो नीतिवान गुणवान हैं हम।
आशीर्वाद मिला शिवशंकर का , तो इन्द्र का मान घटाया जिन ।
क्या शक्ति थी , क्या तेज था उन , एक स्वर्गसा नगर बसाया जिन ।
जो कहलाया था अग्रोहा , उस स्वर्ग से ही तो निकले हम ।।
हैं श्रीरामचंद्र के वंशज हम , सो नीतिवान गुणवान हैं हम।
सबको लेकर साथ चलो , यह अग्रसेनजी सिखलाया।
दे एक टका और एक ईंट , इस सूत्र से समाजवाद लाया ।।
उन युगदृष्टा और दानवीर , के पौत्र - पौत्रियां सारे हम ।।
हैं श्रीरामचंद्र के वंशज हम , सो नीतिवान गुणवान हैं हम।
* बोलिये -- राघवेंद्र सरकार की जय । (श्रीलोकमणि गुप्ता कोटा)
​इसी वंश में जन्मे राजा मान्धाता की अगली पीढ़ियों में हुए श्रीवृहत्सेन । इनके दो पुत्र हुए - प्रतापनगर के राजा वल्लभसेन और कुंदसेन । बृद्धावस्था आने पर वे श्री वल्लभसेन को सत्ता सौंपकर हिमालय में तप करने चले गए ।
वल्लभसेनजी का बिबाह विदर्भ की राजकन्या भगवतीजी से हुआ । लेकिन इन्हें बहुत समय तक कोई सन्तान नहीं हुई , इसलिए चिंतित और दुःखी रहते थे । तब वंश चलाने के लिए भगवतीजी के जोर देने पर एक दिन वे उनके साथ अपने कुलगुरु गर्गाचार्यजी के पास गए , और उनके चरणों में गिरकर अपना दुखड़ा सुनाया ।
गुरुवर ! यदि आप प्रसन्न हो जायं , तो मुझे एक वीर , गुणवान , प्रजापालक , और परोपकारी पुत्र की प्राप्ति करा दें । ​अपने चरणों में समर्पित जानकर उन्होंने उनके ललाट की रेखाओं को पढा , और कह दिया - राजन ! तुम्हें जैसे प्रतापी पुत्र की कामना है , उसे तो केवल भगवान शिव ही पूरी कर सकते हैं । तुम काशी जाओ ।
​तब वे प्रसन्न मन से उनसे शिवमन्त्र की दीक्षा लेकर काशी गये , और वहां विश्वनाथ मन्दिर में भोलेनाथ का अभिषेक करके काशी के बाहर कुटिया बनाकर एक ही समय भोजन का संकल्प लेकर शिव - आराधना करने लगे ।
​तब ऐसी कठोर तपस्या से भोलेनाथ का हृदय पसीज गया । और प्रकट होकर पूछ लिया - क्या चाहिए ? ..... एक ऐसा उत्तराधिकारी चाहिए , जो आप जैसा प्रतापवान , युगस्रष्टा और उदार हो , जिससे कि हमारे वंश का नाम युगों - युगों तक फैलता रहे । यह सुनते ही भोलेनाथ अत्यन्त प्रसन्न होकर बोले - फिर तो तुम्हारी मनोकामना पूर्ति के लिए मैं ही तुम्हारा अंशभूत पुत्र बनकर आऊंगा । और उनके देखते - देखते अन्तर्ध्यान हो गये ।
​समय आने पर उन्हें चालू कैलेंडर के अनुसार आज से 5185 साल पहले * मनुष्या ग्रस्य् यस्या सीत् , कान्तिश् चंन्द्र मसो यथा । (32) आश्विनमास के शुक्लपक्ष की प्रथमा को चंद्रमा के समान कांतिवाले , व मनुष्यों में अग्रगण्य एक नरश्रेष्ठ बालक की प्राप्ति हुई , जिसका कि नाम अग्रसेन रखा गया । इनके जन्म के ग्रह - नक्षत्रों को देखकर ऋषियों ने उसी समय यह भविष्यवाणी कर दी - कि * तं दृष्ट्वा ऋषयो भ्युचुः , यशस्त्वं प्राप्स्य से महद् । श्रीमान् जैत्रो दानशीलः , क्षमा शीलो नरेश्वरः ।। कि आगे चलकर यह बालक बड़ा ही यशस्वी , दानशील , क्षमाशील , व नरश्रेष्ठ राजा होगा । साथ ही यह माता महालक्ष्मी का विशेष कृपापात्र व परमपूजक होगा । जब अग्रसेनजी किशोर हुए , तो उन्होंने महर्षि ताण्ड्य के गुरुकुल में जाकर उनसे अस्त्रशस्त्र , धनुर्वेद व समस्त वेदशास्त्रों का ज्ञान अर्जित किया । तथा शिक्षा पूरी करके राजकाज में पिता महाराज वल्लभसेन का हाथ बँटाने लगे ।
​जब ये सोलहवर्ष के हुए , तब संयोग से भगवान श्रीकृष्ण महाभारत युद्ध की रचना रच चुके थे । तो महाराज युधिष्ठिर के निमंत्रण पर पिता वल्लभसेन के साथ माँ भगवती का आशीर्वाद लेकर कुरुक्षेत्र में गये । यह युद्ध अठारह दिन तक चला , लेकिन संयोग से इस युद्ध में भीष्मपितामह के वाणों से महाराज वल्लभसेन वीरगति को प्राप्त हो गये । फिर भी कुमार अग्रसेन ने अपना महापराक्रम दिखलाकर पाँडवों की विजय पताका फहरवाई । ​लेकिन जब रुदन करते हुए इन पर भगवान श्रीकृष्ण की दृष्टि पडी , तो फिर हमेशा के लिए पड़ गई । उन्होंने इन्हें अपने गले से लगाकर साँत्वना देते हुए कहा - वत्स अग्रसेन ! तुमने युद्ध में अद्भुत कौशल दिखाया है । तुम वीर हो , इसलिए मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूं । तुम्हारे पिताश्री धर्मयुद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए हैं । और वीरों के लिए शोक कैसा ? इसलिए अब तुम जाकर अपना राज्य सँभालो । मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं , कि तुम्हारे हृदय में प्रेम , त्याग , करुणा , और सौम्यता अवतरित हो जाएगी । जिससे तुम आगे चलकर अहिंसा और शांति के दूत माने जाओगे ।
​तुम्हारे राज्य व कुल में हमेशा कीर्ति , यश व महालक्ष्मी प्रतिष्ठित रहेंगीं । यानि , उन्हें भगवान श्रीकृष्ण भी मिल गए , और मां महालक्ष्मी भी मिल गईं । तब ऐसा वरदान पाकर इन्होंने वापस आकर अपना राज्य सँभाला । ​लेकिन अब हमारा आपसे एक प्रश्न है , कि भगवान श्रीकृष्ण का यह आशीर्वाद अकेले अग्रसेनजी को ही क्यों मिला ? युद्ध में तो लाखों लोग मरे थे ? उनके पुत्रों को क्यों नहीं ? तो वह केवल इसलिए , उन्होंने यह आशीर्वाद देकर बनियों के दूध का कर्ज उतारा है । कैसे ? उन्होंने बचपन में अग्रवंशी माँ यशोदा बनैनी का दूध पिया था । और उस कर्ज को वे आज तक उतार रहे हैं । इस काम में उनकी आल्हादिनी शक्ति जगद्जननी माँ राधारानी भी इस वैश्यकुल की पुत्रवधू होने के कारण * वृषभानु वैश्यसुता देवीं , वंदे तव परमेश्वरीं । हम अग्रवालों को अपने आँचल में समेंटकर यशस्वी बनाए हुए हैं ।
महाराजा अग्रसेन क्षत्रिय होते हुए भी वैश्य क्यों कहलाए ?
​महाराजा अग्रसेन का बिबाह महारानी माधवीजी के साथ हुआ , जिनसे उन्हें 18 पुत्र प्राप्त हुए । उन्हीं की संतान हम 18 गोत्रीय अग्रवाल हैं । इतनी कथा सुनकर महाराज जन्मेजय ने महाप्रज्ञ जैमिनीजी से पूछ लिया , कि फिर इतने धन्य और पराक्रमी क्षत्रिय राजा को वैश्यधर्मा क्यों कहा गया ? कृपया विस्तार से इसका विवेचन कीजिए । तब उन्होंने बताया , कि इस अग्रवंश की बृद्धि तो खूब हो गई थी , लेकिन महाराजा अग्रसेन को लगा , कि अभी उतनी कीर्ति नहीं हुई है , जिस पर कि सीना तानकर गर्व किया जा सके , तब उन्होंने अपनी भावना कुलपुरोहित महर्षि गर्ग को बताई , तो वे बोले - कि फिर इसके लिए तुम भी अपने पूर्वजों महामना इच्क्ष्वाकु व महाराज रघु की तरह वही वंशकर यज्ञ करो , जिसे कि उन्होंने अपने वंश की कीर्ति के लिए किया था । इस यज्ञ से अपनी संतति को गोत्र प्रदान करके गोत्रकृत कर दिया जाता है । ​तब वे राजमाता माधवीजी के साथ गठजोडा करके यज्ञ की अग्नि लेकर आए । यहाँ महाप्रज्ञ जेमिनीजी कहते हैं - कि हे जन्मेजय ! पतिव्रता स्त्रियों का यही धर्म है , वे हमेशा ऐसे सौख्य व आनन्द की अनुभूति कराने वाले कर्म करती ही रहें । क्यों ? क्योंकि कुल की बृद्धि , तथा पितरों को स्वर्गप्राप्ति के लिये ये तीन पुरुषार्थ धर्म , अर्थ , और काम करने बहुत आवश्यक हैं ।
​इसके बाद महाराजा अग्रसेन ने गठजोडा करके हवनकुंड में आहूतियां अर्पित कीं , और सत्रह दिनों में सत्रहपुत्रों के निमित्त सत्रहयज्ञ पूर्ण करवाकर उन्हें सत्रह गोत्र प्रदान कर दिये । कुलगुरू गर्गाचार्यजी ने उनके ज्येष्ठपुत्र विभूसेन के हाथों - 1- प्रथम महायज्ञ करवाकर “ गर्ग गोत्र ” प्रदान किया गया । ( गर्ग लोग बडे भाई हुए )
2- दूसरे दिन गोभिल ऋषि के द्वारा दूसरे पुत्र विक्रमसेन के हाथों “ गोयल गोत्र ” दिया ।
3- तीसरे दिन गौतम ऋषि के द्वारा तीसरे पुत्र अजयसेन को “ कुच्छल गोत्र ” मिला ।
4- चौथे दिन वत्स ऋषि के हाथों चौथे पुत्र विजयसेन को “ कंसल गोत्र ” मिला।
5- पांचवे दिन कौशिक ऋषि के द्वारा पांचवे पुत्र अनलसेन को “ विंदल गोत्र ” मिला ।
6- छठवें दिन शांडिल्य ऋषि के द्वारा छठवें पुत्र नीरजसेन को “ धारण गोत्र ” दिया गया ।
7 - सातवें दिन मंगल ऋषि ने सातवें पुत्र अमरसेन को ” मंगल गोत्र ” प्रदान किया गया ।
8- आठवें दिन जैमिनी ऋषि द्वारा आठवें पुत्र नगेन्द्रसेन को “ जिंदल गोत्र ” दिया गया ।
9 - नौवें दिन तांड्य ऋषि के हाथों नौवे पुत्र सुरेशसेन को “ तिंगल गोत्र ” दिया गया ।
10 - दसवें दिन आर्व ऋषि के द्वारा दसवें पुत्र श्रीमंतसेन को “ ऐरन गोत्र " दिया गया ।
11- ग्यारहवें दिन धौम्य ऋषि द्वारा ग्यारहवें पुत्र सोमसेन को “ तायल गोत्र " दिया गया ।
12- बारहवें दिन मुदगल ऋषि से बारहवें पुत्र धरणीधर सेन को “ बंसल गोत्र ” मिला ।
13 - तेरहवें दिन वशिष्ठ ऋषि के द्वारा तेरहवें पुत्र अतुलसेन को " सिंघल गोत्र ” मिला ।
14- चौदहवें दिन मैत्रेय ऋषि के हाथों चौदहवें पुत्र अशोकसेन को " मित्तल गोत्र ” मिला ।
15- पन्द्रहवें दिन कश्यपऋषि के द्वारा पन्द्रहवें पुत्र सुदर्शनसेन को ” कुच्छल गोत्र ” मिला ।
16- सोलहवें दिन तेतिरेयऋषि के द्वारा सोलहवें पुत्र सिद्धार्थसेन को " मधुकुल गोत्र ” मिला।
17 - सत्रहवें दिन धन्यास ऋषिके हाथों सत्रहवें पुत्र गुणेश्वरसेन को ” भंदल गोत्र ” मिला ।
​लेकिन इन सत्रह दिनों में रोजाना दी जाने वाली पशुबलि के बहते , रक्त व मांस को देखकर अग्रसेनजी का हृदय अंदर ही अंदर ग्लानि से भर उठा । (हम आपको इनको हुई भविष्यवाणी पहले ही सुना चुके हैं , कि यह बालक बड़ा ही दयालु , दानवीर , क्षमाशील , यशस्वी व नरश्रेष्ठ राजा होगा ।)
​इसलिये जब नागेन्द्र ऋषि के द्वारा अठारहवें पुत्र लोकपति सेन के हाथों अठारहवाँ यज्ञ करवाया जा रहा था , तब उनका हृदय रो पडा , जिससे वे निश्तेज होकर खिन्न मन से यज्ञ को अधूरा ही छोड़कर अपने महल में लौट आए ।
​जब ऋषियों ने उनसे इसका कारण पूछा , तो दयाभाव से भरे हुए उन्होंने बडे ही नम्र स्वर से कहा - कि हे मुनिवर ! संसार में किसी भी प्राणी को न तो प्राणों से बढकर अन्य कोई वस्तु प्रिय है । और न मृत्यु अभीष्ट है । इसलिये मेरा हृदय कहता है , कि हमें सब प्राणियों को अपने समान ही समझकर उन पर दया करनी चाहिए ।
​तब ऋषियों ने उन्हें अपने - अपने तर्क देकर बहुत समझाने का प्रयास किया - कि राजन् ! बृह्माजी ने पशुओं की सृष्टि , यज्ञ और सिद्धियों की प्राप्ति के लिए ही तो की है । इसलिये आपको इन मर्यादाओं का पालन करना चाहिए । तो महाराजा अग्रसेन ने साफ कह दिया , मुनिवर ! बृह्माजी का विधान क्या कहता है , मुझे पता नहीं , लेकिन मैंने जिन श्रीकृष्ण से आशीर्वाद पाया है , उनका विधान ऐसा नहीं कहता ।
शास्त्र कहता है , कि जो बात हमें बुरी लगती है , वह दूसरे से भी नहीं कहनी चाहिए । उसी तरह जब हमारी चमड़ी में जरा सी सुई चुभती है , तो हम कैसे हाय मैया री ! करने लगते हैं , तो जब हम किसी निरीह प्राणी की हत्या करते हैं , तो क्या उसे पीड़ा नहीं होती होगी ? क्या आपने कभी उसकी आँखों में झाँककर देखा है ? ​यह सुनकर वे ऋषि क्रोधित गये , और उन्होंने उनसे न कहने जैसी बात कह दी - क्या ? राजन् ! तुम इस यज्ञ को पूरा करो , नहीं तो तुम्हारे पुत्र - पौत्रादिकों का प्रजा सहित विनाश हो जाएगा । यह सुनकर भी अग्रसेनजी ने स्पष्ट कह दिया - कि ये पशु भी मेरी प्रजा हैं , इसलिए मैं इनके लिए , संतति और सत्ता तो क्या ? अपने इस शरीर को भी त्यागने को तैयार हूँ । यदि ऐसे बलिकर्म से क्षत्रियों को कोई दोष नहीं लगता , तो मुझे नहीं चाहिए , ऐसा क्षत्रित्वपना , जो कि मुझे निर्दयी बना दे । इसलिए मैं इस अधर्म कर्म को रोकने के लिए आज और इसी समय से ऐसे क्षत्रियधर्म का परित्याग करके यह प्रतिज्ञा करता हूँ , कि आज से मैं मानवता से ओतप्रोत वैश्यधर्म का अनुपालन करूँगा । क्योंकि मनुस्मृति के अनुसार पशुरक्षा , अध्ययन , कृषि , वाणिज्य , दान देना आदि वैश्यों के प्रमुख कार्य हैं । श्री वामन पुराण में भी बताया गया है - कि वैश्यगण यज्ञाध्ययन से सम्पन्न दाता , तथा पशुपालन का कर्म करें । इसलिए आज से मेरा कुल वैश्यकुल कहलाएगा , तथा हम वैश्यों का प्रधानधर्म शुचिता और दयालुता के साथ प्रजा का पालन होगा । इस तरह उन्होंने वैश्यवर्ण स्वीकार करके उन्होंने न तो संतों का तिरस्कार किया , और न ही अपनी भावनाओं का दमन होने दिया ।
​ बोलिए - अग्रकुल शिरोमणि महाराजा अग्रसेन की जय !!